गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

मौत रक्सां थी जहाँ...


मुंबई धमाकों ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया... पर धमाके तो पहले भी हुए... कई घर पहले भी बर्बाद हुए... फिर देश अब क्यों ज्यादा हिला...? इस सवाल के अपने-अपने जवाब हैं. कोई कहता है कि इस बार मंज़र ज्यादा खतरनाक था, आंतक के साये कोई ६० घंटे से भी ज्यादा समय तक सिर पर मौत कि तरह नाचते रहे... कुछ कुछ यह भी सुनायी पड़ा है कानों में कि अबकि बार दहशत ने पढ़े लिखों को, उससे भी ज्यादा देश के '' क्रीम '' को शिकार बनाया... खैर! मौत तो मौत होती है... वह कफ़न खरीदने कि हैसियत देखकर नहीं आती... वह दबे पाँव आती है दरिन्दे चीते कि तरह और सीधे सब कुछ ख़त्म कर देती है... पिछले दिनों जब मुंबई में मौत रक्सां थी, कुछ सन्देश चले, बेहद दिल को छू लेने वाले॥ ऐसे ही एक सन्देश कि बानगी नीचे है...


वो बीस हजार कमाता था,
घर पर राशन पानी लाता था।
जैसे तैसे भी करके वो,
घर का खर्च चलाता था।
आफिस से घर पर आ कर,
लड़के को रोज पढ़ाता था।
रात जब भी घिर आती,
लड़की को लोरी गा सुलाता था।

दिवाली पर पटाखे लाता,
बच्चों को मेला घुमाता।
आफिस से छुट्टी ले कर,
माँ-बाप को तीर्थ कराता।

एक रोज फिर से वो घर आया,
सबने उसको चादर में लिपटा पाया।
ना राशन पानी साथ में था,
ना बच्चों को वो बुला पाया।

एक धमाके ने घर की
सारी तस्वीर बदल रख डाली।
सुहाग किसी का लूटा,
और सारी खुशियाँ छीन डाली।

फिर घर में कुछ नेता आये,
झूठे आँसू आँख में लाये।
मीडिया का भी कैमरा चमका,
जिससे चैनल पे अपने,
वो ये मंजर दिखा पाये।

सरकार ने फिर वही काम किया,
हर मृतक को रूपया लाख दिया।
चंद वोट पाने की खातिर,
ढुलमुल नीति से काम लिया।

‘तरूण‘ सभी तब उग्र हुए,
कुछ ने दोनों के पक्ष लिये।
जो तन लागी वो ही जाने,
क्या जख्म मिले, क्या घाव सिये।

दिन बीते, फिर साल गये
वो बच्ची अब खुद सोती है।
अपने घर की हालत को देख,
वो लाश अभी तक रोती है।