रविवार, 11 मई 2008

खनकती ताल का अवसान

मुझे आज भी याद है... किशन महाराज जी जब इंदौर में पधारे थे... । अभिनव कला समाज का सादगी भरा सभागार था वह... । दाद देने में मशहूर इंदौर के श्रोता और किशन जी की थाप... अल्लाह रख्हाजैसे कलाकारों के बाद वरिष्ठता और ज्ञान के क्रम में कोई आता था तो वे किशन महाराज ही थे।

महाराज क्या गए जैसे वाराणसी का ठाठ ही चला गया... बनारस बाज में घुला उनका रियाज़ जब उंगलियों के सहारे टेबल की स्याही पर गहरे नाद की तरह बजता था तो उस मौसिकी की खूबसूरती क्या होती होगी इसे सिर्फ़ वही जान सकता है जिसने कभी ना कभी किशन महाराज जी को लाइव सुना हो...

उनका अवसान बनारसी थाप का अवसान है... आज हिंदुस्तान में एक कला समीक्षक ने लिखा है की ताल की पहली मात्र तब थी जब महाराज ने जन्म लिया था ... दूसरी तब जब उन्होंने तबले को अपना साथी बनाया था... तिहाई तब निकली जब वो तबला वादन के शिखर पर थे... सम आ चुकी है... ताल ख़त्म हो चुकी है ... क्योंकि महाराज जी जो अब नहीं रहे। - विभास