मुझे आज भी याद है... किशन महाराज जी जब इंदौर में पधारे थे... । अभिनव कला समाज का सादगी भरा सभागार था वह... । दाद देने में मशहूर इंदौर के श्रोता और किशन जी की थाप... अल्लाह रख्हाजैसे कलाकारों के बाद वरिष्ठता और ज्ञान के क्रम में कोई आता था तो वे किशन महाराज ही थे।
महाराज क्या गए जैसे वाराणसी का ठाठ ही चला गया... बनारस बाज में घुला उनका रियाज़ जब उंगलियों के सहारे टेबल की स्याही पर गहरे नाद की तरह बजता था तो उस मौसिकी की खूबसूरती क्या होती होगी इसे सिर्फ़ वही जान सकता है जिसने कभी ना कभी किशन महाराज जी को लाइव सुना हो...
उनका अवसान बनारसी थाप का अवसान है... आज हिंदुस्तान में एक कला समीक्षक ने लिखा है की ताल की पहली मात्र तब थी जब महाराज ने जन्म लिया था ... दूसरी तब जब उन्होंने तबले को अपना साथी बनाया था... तिहाई तब निकली जब वो तबला वादन के शिखर पर थे... सम आ चुकी है... ताल ख़त्म हो चुकी है ... क्योंकि महाराज जी जो अब नहीं रहे। - विभास
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2 टिप्पणियां:
विभास भाई;
सबसे पहले आपको ब्लॉगर बिरादरी में शरीक होने पर ख़ुशामदीद कहता हूँ.आपको लिखने का संस्कार विरसे में मिला है.माँ , बहन और आप सब मिल कर सारे सांस्कृतिक फ़लक को समृध्द करते रहे हैं.
ये कारनामा अब आपके ब्लॉग के ज़रिये ख़ूब फले-फूले यही कामना..हाँ ब्लॉग वाणी और चिट्ठाजगत पर भी अपने ब्लॉग को रजिस्टर ज़रूर करियेगा तभी तो आपके शब्द ज़माने तक पहुँचेंगे...इन दोनो के होमपेज पर जानकारी दी हुई है.
किशन महाराज को मैंने भी याद किया था...अब याद ही बाक़ी है.
उनके जाने से हम सब ने एक बड़ा कलाकार खोया है. ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे!
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